अजा एकादशी व्रत कथा | Aja Ekadashi Vrat Katha

अजा एकादशी कब मनाई जाती हैं? (Aja Ekadashi Date)

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी कहा जाता है।

अजा एकादशी व्रत के पूजा के समय आप को व्रत कथा का श्रवण या पाठ जरुर करना चाहिए।

जो इसका व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर अंत में विष्णु लोक में पहुंच जाता है। इस व्रत का फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में दान-स्नान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होता है। 

यह व्रत एकादशी तिथि से प्रारंभ होकर द्वादशी तिथि की सुबह समाप्त होता है।

अजा एकादशी व्रत कथा

अजा एकादशी या ‘कामिका एकादशी‘ का व्रत भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है।

इस एकादशी को ‘जया एकादशी‘ तथा ‘कामिका एकादशी’ भी कहते हैं। इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु के ‘उपेन्द्र’ स्वरूप की पूजा अराधना की जाती है तथा रात्रि जागरण किया जाता है।

इस पवित्र एकादशी के फल लोक और परलोक दोनों में उत्तम कहे गये है। अजा एकादशी व्रत करने से व्यक्ति को हज़ार गौदान करने के समान फल प्राप्त होते हैं।

व्यक्ति द्वारा जाने-अनजाने में किए गये सभी पाप समाप्त होते है और जीवन में सुख-समृ्द्धि दोनों उसे प्राप्ति होती हैं।

एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान में दे दिया है। राजा ने स्वप्न में जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था, उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती-जुलती थी।

अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुँचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे, तभी विश्वामित्र ने राजा से पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी।

राजा ने कहा- “हे ऋषिवर! आप पाँच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएँ ले सकते हैं।” विश्वामित्र ने कहा- “तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।”

तब राजा हरिश्चन्द्र को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटाईं तो सही, परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया।

राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा था, वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते मृतकों के संबंधियों से ‘कर’ लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था।

उस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था, जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर ‘अंतिम संस्कार’ के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे ‘कर’ वसूल करके उसे अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए।

राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे। राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। किन्तु उसने इस आपत्ति के काम में भी सत्य का साथ नहीं छोड़ा।

जब इसी प्रकार उसे कई वर्ष बीत गये तो उसे अपने इस नीच कर्म पर बड़ा दुख हुआ और वह इससे मुक्त होने का उपाय खोजने लगा। वह सदैव इसी चिन्ता में रहने लगा कि मैं क्या करूँ? किस प्रकार इस नीच कर्म से मुक्ति पाऊँ?

एक बार की बात है, वह इसी चिन्ता में बैठा था कि गौतम् ऋषि उसके पास पहुँचे। हरिश्चन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया और अपनी दुःख-भरी कथा सुनाने लगे।

राजा हरिश्चन्द्र की दुख-भरी कहानी सुनकर महर्षि गौतम भी अत्यन्त दुःखी हुए और उन्होंने राजा से कहा: हे राजन! भादों माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम अजा है। तुम उस एकादशी का विधानपूर्वक व्रत करो तथा रात्रि को जागरण करो। इससे तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।

महर्षि गौतम इतना कहकर आलोप हो गये। उस दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था।

हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहाँ एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था।

शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर माँगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला ‘कर’ अदा करने के लिए धन कहाँ से आता?

कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से ‘अंतिम संस्कार’ न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका।

उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे।

वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था, उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व, जिसका सांप के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था। पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे।

उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे।

मानो कह रहे हों- “हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?” परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी।

उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- “देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊँगा।

यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। ‘कर’ लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।”

रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर ‘कर’ के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- “हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।”

राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- “भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।” और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।”

अजा एकादशी व्रत के नियम

भाद्रपद, कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि के दिन की एकादशी अजा नाम से पुकारी जाती है । इस एकादशी का व्रत करने के लिये व्यक्ति को दशमी तिथि को व्रत करने वाले व्यक्ति को व्रत संबन्धी कई बातों का ध्यान रखना चाहिए । इस दिन व्यक्ति को निम्न वस्तुओं का त्याग करना चाहिए ।

  1. व्रत की दशमी तिथि के दिन व्यक्ति को मांस कदापि नहीं खाना चाहिए
  2. दशमी तिथि की रात्रि में मसूर की दाल खाने से बचना चाहिए इससे व्रत के शुभ फलों में कमी होती है
  3. चने नहीं खाने चाहिए
  4. करोदों का भोजन नहीं करना चाहिए
  5. शाक आदि भोजन करने से भी व्रत के पुन्य फलों में कमी होती है
  6. इस दिन शहद का सेवन करने एकाद्शी व्रत के फल कम होते है
  7. दुसरे की निन्दा करने से बचना चाहिए
  8. झूठ का त्याग करना चाहिए
  9. व्रत के दिन और व्रत से पहले के दिन की रात्रि में कभी भी मांग कर भोजन नहीं करना चाहिए
  10. इसके अतिरिक्त इस दिन दूसरी बार भोजन करना सही नहीं होता है
  11. व्रत के दिन और दशमी तिथि के दिन पूर्ण ब्रह्माचार्य का पालन करना चाहिए
  12. व्रत की अवधि मे व्यक्ति को जुआ नहीं खेलना चाहिए
  13. एकाद्शी व्रत हो, या अन्य कोई व्रत व्यक्ति को दिन समयावधि में शयन नहीं करना चाहिए
  14. दशमी तिथि के दिन पान नहीं खाना चाहिए
  15. दातुन नहीं करना चाहिए
  16. किसी पेड को काटना नहीं चाहिए

अजा एकादशी व्रत पूजा विधि

अजा एकादशी का व्रत करने के लिए उपरोक्त बातों का ध्यान रखने के बाद व्यक्ति को एकाद्शी तिथि के दिन शीघ्र उठना चाहिए ।

उठने के बाद नित्यक्रिया से मुक्त होने के बाद, सारे घर की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद तिल और मिट्टी के लेप का प्रयोग करते हुए, कुशा से स्नान करना चाहिए ।

स्नान आदि कार्य करने के बाद, भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करनी होती है । 

भगवान श्री विष्णुजी का पूजन करने के लिये एक शुद्ध स्थान पर धान्य रखने चाहिए ।

धान्यों के ऊपर कुम्भ स्थापित किया जाता है, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से सजाया जाता है और स्थापना करने के बाद कुम्भ की पूजा की जाती है ।

इसके पश्चात कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की प्रतिमा या तस्वीर लगाई जाती है । अब इस प्रतिमा के सामने व्रत का संकल्प लिया जाता है ।

बिना संकल्प के व्रत करने से व्रत के पूर्ण फल नहीं मिलते है संकल्प लेने के बाद भगवान की पूजा धूप, दीप और पुष्प से की जाती है ।

व्रत करने के फायदे

इस एकादशी के दिन किया जाने वाला व्रत समस्त पापों और कष्टों को नष्ट करके हर प्रकार की सुख-समृद्धि प्रदान करता है। अजा एकादशी के व्रत को करने से पूर्वजन्म की बाधाएँ दूर हो जाती हैं।

इस दिन व्रत करने और भगवान विष्णु की पूजा करने से व्यक्ति एक अश्वमेघ यज्ञ कराने से अधिक पुण्य की प्राप्ति होती है। पापों का नाश होता है और वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।

जो इसका व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर अंत में विष्णु लोक में पहुंच जाता है। इस व्रत का फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में दान-स्नान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होता है। 

अजा एकादशी व्रत करने से व्यक्ति को हज़ार गौदान करने के समान फल प्राप्त होते हैं। व्यक्ति द्वारा जाने-अनजाने में किए गये सभी पाप समाप्त होते है और जीवन में सुख-समृ्द्धि दोनों उसे प्राप्ति होती हैं।

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